मटर की खेती भारत में व्यापक रूप से की जाती है तथा इसकी उपयोगता भी अत्यधिक है। हम आपको बतायगे की मटर की खेती में फसल में होने वाले कीट एवं रोग का उपचार या प्रबंधन कैसे किया जाता है।
मटर के प्रमुख कीट
1. पर्ण सुरंगक (Leaf Miner)
पहचान एवं क्षति के लक्षण:- प्रौढ़ मक्खी चमकीली गहरे, हरे रंग या काली होती है। इसका वक्ष काले रंग का होता है तथा किनारों पर पीले निशान होते है।अगले पंख पारदर्शक होते है। पिछले पंख हाल्टियर्स में बदल जाते है। तथा पीले होते हैं। इस कीट की आखे बड़ी तथा उन्नत होती है।
इलियाँ गोलाकार यंत्र द्वारा पश्रियों पर असंख्य छेद बनाती है। अधिक छेद होने के कारण छोटे कोमल पौध मुरझाकर सूख जाते है तथा बड़े पौधों की पत्तियाँ सूख जाती है। इस कीट की इली पत्री की दोनों परतों के बीच में घुसकर हरे पदार्थ तथा मीजोफिल को खाती हैं। इस कारण पत्तियों में सफेद रंग की आड़ी-तिरछी सुरंगे बन जाती है। प्रकोप अधिक होने पर फूल तथा फली लगना काफी कम हो जाता है।
2. मटर फली भेदक
पहचान एवं क्षति के लक्षण:
प्रौढ़ कीट हल्के रंग का तथा अगले पंखों में क्षेत्र के बीज के समान एक-एक काला धया रहता है। इस कीट की इल्लियों के रंगों में विविधता पायी जाती है। इनी फलियों में घुसकर दानों को खाती है जिस कारण फलियों खाने योग्य नहीं रहती।
3. माहू(एफिड)
पहचान एवं क्षति के लक्षण:
-ये कीट छोटे-छोटे पीलापन लिए हुए हरे रंग के जूं की तरह होते है। इनकी आंखें होती हैं। वयस्क कीट पंखदार पंखरहित दोनों प्रकार के होते है। माहू कीट के शिशु एवं प्रौढ़ टहनियों, पत्तियों शाखाओं एवं फलियों में समूह में चिपके रहते है। इस कीट के शिशु एवं प्रौढ़ दोनों ही पौधों की टहनियों, पत्तियों एवं फूलों से रस चूसते है। रस चूसने के कारण फूल मुरझा जाते है। एवं लगती है। क्षतिग्रस्त फलियां आकार में छोटी रह जाती हैं तथा अपूर्ण रूप से भरी हुई रहती ह
4. चिपा (तेला)
पहचान एवं क्षति के लक्षण:
-ये कीट काफी छोटे (0.5 से 1.0 फसलों में कीट में कीट-रोग प्रबंधन मि.मी. लम्बे) और सक्रिय होते है। इनके पंख झालरदार होते है। शिशु एवं प्रौढ़ काले रंग के होते है। शिशु एवं प्रौढ़ पत्तियों एवं पूलों में रस चूसते है। इस कारण पत्तियां जगह-जगह पीली एवं धध्येदार हो जाती है। प्रकोपित पौधों में पलियां कम लगती है।
मटर की खेती में कीटों की रोकथाम
- मटर की फसल को कीट प्रकोप से बचाने के लिए निम्नलिखित उपाय अपनाने चाहिए –
- इस फसल को समय से बोना चाहिए। उचित समय पर बोई गई फसल पर (अक्टूबर- नवंबर) कीट प्रकोप अपेक्षाकृत कम होता है।
- पर्ण सुरंगक कीट का प्रकोप सूखी भूमि पर अधिक होता है। अतः आवश्यकतानुसार समय पर पानी देना चाहिए।
- क्षतिग्रस्त पत्तियों तथा फलियों को तोड़कर कीटों सहित नष्ट कर देना चाहिए। ऐसा करने से सुरंगक तथा फली भेदक कीटों से होने वाले नुकसान को कम किया जा सकता है।
- फसल कटाई के बाद खेद की जुताई अच्छी तरह से करना चाहिए। जिससे भूमि में छिपी इलिया तथा कोष (फली भेदक कीट) उपर आकर धूप से नष्ट हो जाते है या पक्षियों का आहार बन जाते है।
- परभक्षी मित्र कीट जैसे कॉक्सीनेला. सिरफिट आदि हानिकारक कीटों की अवस्थाओं को खाकर अपना जीवन निर्वाह करते है। इसलिए इनका संरक्षण करना चाहिए।
- फेरोमेन प्रपंच का प्रयोग 8-10 प्रपंच/हेक्टेयर लगाकर चना इल्ली के नर वयस्क को पकड़े जिससे मादाएं बिना नर के साथ संभोग के अण्डे नहीं दे सकेगी, जिस कारण कीट संख्या में अप्रत्याशित कमी की जा सकती है।
- एच.ए.एन.सी. का प्रयोग भी चना इली के लिए कर सकते है। इसका प्रयोग 250 इल्ली समतुल्य मात्रा प्रयोग की जाती है अथवा इसक खेतों में वायरस से भरी हुई इणियों को इकट्ठा कर उनका घोल बनाकर छिड़काव कर सकते है।
- टी आकार की बूटियां खेतों में अवश्य लगावें जिससे उन पर पक्षी आकर बैठे और विभिन्न प्रकार की इलियों को अपना भोजन बनाकर खा लेती है
मटर की फसल में कीटों का रासायनिक नियंत्रण
- पर्ण सुरंगक, माहू तथा चिप्स कीटों का अधिक प्रकोप होने पर डायमेथोएट 30ई.सी. या मेटासिस्टॉक्स 25 ई.सी.750 मिली. या फास्फोमिखान85 ई.सी, 325 मिली. का छिड़काव प्रति हेक्टेयर करना चाहिए।
- फली भेदक कीटों के समन्धित प्रबंधन के लिए फूल आने की अवस्था में कार्यारिल 50 प्रतिशत घुलनशील चूर्ण 2 किलों का छिड़काव प्रति हेक्टेयर के हिसाब से करें। आवश्यकता पड़ने पर दूसरा छिड़काव प्रथम छिड़काव के 15 दिन बाद करें।
मटर की फसल के रोग एवं उनका नियंत्रण
1. चूर्णिल आसिता (भभूतिया रोग):-
यह रोग एरीसाइफी पोलेगोपाई नामक फफूद से होता है। जनवरी-फरवरी के महीनों में इस रोग का प्रकोप अधिक होता है। पत्तियों पर सफेद पाउडरनुमा पये बनते है, जो अनुकूल वातावरण मिलने पर पूरे पौधे पर फैल जाते है। फसल ऐसी दिखाई देती है मानो पावडर का भुरकाव किया गया हो। संक्रमित पत्तियां पीली पड़कर मुड़ जाती है और अंत में गिर जाती है। रोग का अधिक प्रकोप होने पर पौधा मर जाता है।
रोकथाम:-
- रोग अवरोधी जातियां जैसे – जे.पी. 179, जे.पी. 885. अधिका, के.पी.एम.आर. एवं स्वाति लगायें।
- फफूनाशक दवा कार्बेन्डाजिम को । ग्राम मात्रा प्रति लीटर पानी में घोलकर छिड़काव करें।
- घुलनशील गंधक 2.5 ग्राम अथवा प्रति लीटर पानी में घोल बनाकर छिड़काव करें या गंधक चूर्ण 18-25 किग्रा. प्रति हेक्टेयर की दर से भुरकाव करें। या गंधक नामक फफूंदनाशक दवा (50ग्राम को 100 लीटर पानी में) का छिड़काव एक या दो बार करें।
2. उकठा या बिल्ट
यह रोग फ्यूजेरियम ऑक्सीसोरम स्पी. पिसी से उत्पन्न होता है। रोग की प्रारंभिक अवस्था में पौधे की पत्तियां नीचे से उपर की ओर पीली पड़ने लगती है। जडे सड़ जाती है। तथा पौधा सूख जाता है। जडों को फाड़कर देखने पर मटमैली धारियां लम्बाई में दिखाई देती है।
रोकथाम
ग्रीष्मकालीन गहरी जुताई करें। बुवाई के समय खेत से पूर्ण फसल के अवशेषों को निकाल दें। 3-4 वर्षों का फसल चक अपनायें, जिसमें मटर न हो
• बीजों को बोने से पूर्ण फफूंदनाशक दवा थायरम कार्बेन्डाजिम (2:1 ग्राम) प्रति किलों बीज से उपचारित कर बुवाई करे।
• उकठा का प्रकोप दिखने पर सिंचाई न करें।
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